चुनाव के दौरान प्रत्याशी वोटरों के पास जा कर गले मिलते हैं, हाथ जोड़ते हैं और बड़े-बड़े वादे करते हैं। यह एक आम दृश्य बन गया है, जब हर नेता अपनी जीत के लिए वोटर्स के बीच में जाकर उनकी समस्याओं को सुनता है और समाधान देने का भरोसा देता है। लेकिन जैसे ही चुनाव समाप्त होते हैं, स्थिति पूरी तरह बदल जाती है। पार्षद चुनाव के बाद जब जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधि से छोटे-छोटे कामों के लिए मिलना चाहती है, तो उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ता है। कई बार उनके कामों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, और उनके पास तक पहुंचने के लिए उन्हें तरह-तरह के संपर्क साधने पड़ते हैं।
चुनावों के समय तक, नेताओं और वोटरों के बीच रिश्ते में एक विशेष आकर्षण होता है, जो चुनाव समाप्त होने के बाद अक्सर कमजोर हो जाता है। नेता अपनी राजनीति की मोह माया में इतने व्यस्त होते हैं कि जनता के छोटे-छोटे कामों को नजरअंदाज कर देते हैं। इसके बजाय, वे शॉपिंग मॉल्स का उद्घाटन करते हुए दिखाई देते हैं या किसी अन्य सार्वजनिक कार्यक्रम में शामिल होते हैं। इस स्थिति में, पार्षदों और वोटरों के बीच असल मुलाकात का समय बेहद कम हो जाता है।

चुनाव के दौरान यह अच्छे संबंध एक दिखावा बनकर रह जाते हैं। जब तक नेता सत्ता में रहते हैं, तब तक जनता की ज़रूरतें केवल चुनावी मुद्दे बनकर रह जाती हैं। हालांकि, यह स्थिति केवल तब तक चलती है जब तक अगले चुनाव की आहट नहीं सुनाई देती। एक सच्चे लोकतंत्र में नेता और वोटर के बीच का रिश्ता एक निरंतर संवाद और कामकाजी संबंध होना चाहिए, लेकिन हमारी राजनीति में यह अक्सर एक अस्थायी रूप में दिखाई देता है, जो चुनावों के बाद धीरे-धीरे फीका पड़ जाता है।
